प्रज्ञा का आलेख 'गर्दिश में हों तारे..'
प्रज्ञा आज की दुनिया बहुत हद तक व्यावसायिक होती जा रही है। इस व्यावसायिकता में आगे निकलने के लिए नैतिकता को सामान्यतया ताक पर रख दिया जाता है। तमाम ऐसे हथकंडे अपनाए जाते हैं जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। आदर्श भले ही सुनने में अच्छे लगते हैं लेकिन हमारे यहां इसे सुनाने की परंपरा ही ज्यादा रही है। अब तो छोटे कस्बों और नगरों तक में लकदक मॉल्स खुल गए हैं। इन मॉल्स ने छोटे दुकानदारों और रेहड़ी वाले दुकानदारों के लिए भीषण दिक्कतें पैदा कर दी है। इनके सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। पूंजीवाद की विसंगतियों का सामना सामान्य तरीके से नहीं किया जा सकता। बहरहाल इस व्यावसायिकता की जटिलताओं को केन्द्र में रख कर प्रज्ञा ने एक उम्दा कहानी लिखी है। आइए आज पहली बार पर आज हम पढ़ते हैं प्रज्ञा का आलेख 'गर्दिश में हों तारे..'। यह कहानी ज्ञानोदय के हालिया अंक से साभार ली गई है। कहानी 'गर्दिश में हों तारे..' प्रज्ञा आगरा के मदन मोहन दरवाजे के बाहर जाती सड़क के दूसरी तरफ ही शर्मा हलवाई की बरसों पुरानी दुकान है। कितनी दुकानें बनी-मिटी पर शर्मा की दुकान टस से मस न हुई। आ...